यह विश्व के इतिहास में पहला ऐसा मौका है, जब कोरोना ने हजारों सालों से चली आ रही एक और परंपरा को तोड़ दिया है. सोनपुर मेला का अब तक का जो इतिहास रहा है, ऐसा कभी अवसर नहीं आया जब यहां गुरु पूर्णिमा को मेला न लगता हो. 50 के दशक में एक मौका आया था, जब लगा था कि मेला बंद हो जाएगा. लेकिन उस साल भी मेला लगा था.
बिहार के सोनपुर में विश्व प्रसिद्ध मेला हर साल पूर्णिमा के दिन लगता है. यह मेला लगभग 1 महीने तक चलता है.यहां भारत ही नहीं, भारत से बाहर के देशों से लोग खरीदारी के लिए आते हैं. मेले में पशु से लेकर सभी तरह के सामान बिकते हैं. मेला में दर्शकों के मनोरंजन के लिए नौटंकी, गीत, संगीत ,नाटक, मैजिक शो ,सर्कस इत्यादि का आयोजन बड़े स्तर पर होता है. लेकिन मेला न लगने से इसका व्यापक असर संबंधित पेशा, क्षेत्रों के लोगों पर पड़ा है.
इस मेले के बारे में यह भी कहा जाता है कि एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है. इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यहां सुई से लेकर हाथी तक मिल जाएगा. इस मेले के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि यहां कभी अफगान ,इरान, इराक जैसे देशों के लोग पशुओं की खरीदारी करने आया करते थे. चंद्रगुप्त मौर्य ने इसी मेले से बैल, घोड़े, हाथी और हथियारों की खरीदारी की थी.
1857 की लड़ाई के लिए जाने वाले बाबू वीर कुंवर सिंह ने यहीं से अरबी घोड़े, हाथी और हथियारों का संग्रह किया था. अंग्रेजों के जमाने में हथुआ, बेतिया, टेकारी तथा दरभंगा महाराज की तरफ से सोनपुर मेला के अंग्रेजी बाजार में नुमाइश लगाई जाती थी. यहां हाथी के दांत की बनी वस्तुएं और दुर्लभ पशु पक्षी भी मिलते थे.
मेले के बारे में पौराणिक आख्यान भी चर्चित है. बताया जाता है कि भगवान के दो भक्त हाथी और मगरमच्छ के रूप में धरती पर अवतरित हुए थे. जब हाथी पानी पीने आया, तो मगरमच्छ ने उसे जबड़े में जकड़ लिया. इसके बाद दोनों में युद्ध शुरू हो गया. काफी समय तक दोनों के बीच युद्ध चलता रहा. जब हाथी कमजोर पड़ने लगा, तब उसने भगवान विष्णु से प्रार्थना की. भगवान विष्णु ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन धरती पर अवतरित होकर सुदर्शन चक्र चलाकर उनके बीच युद्ध को खत्म कर दिया. क्योंकि यहां दो जानवरों के बीच युद्ध हुआ था, इसलिए यहां पशुओं की खरीदारी के लिए शुभ स्थान माना जाता है. उसी समय से यहां मेला लगने की परंपरा शुरू हुई और यह पहला मौका है जब कोरोना के चलते राज्य सरकार ने मेला को स्थगित कर दिया है.