पुराने जमाने में लोग इस मुहावरे का प्रयोग करते थे. इसका अर्थ होता है कि घर या गांव का व्यक्ति कितना ही बड़ा क्यों ना हो जाए, उसकी कोई कदर नहीं होती. बिहार के छपरा जिले के एक गांव तूजार पुर के रामचंद्र मांझी के बारे में यह मुहावरा बिल्कुल सटीक बैठता है. रामचंद्र मांझी को संगीत कला के क्षेत्र में भारत के राष्ट्रपति ने सम्मानित किया है. उन्हें संगीत कला नाटक अकादमी पुरस्कार मिला है. इस सम्मान के बाद सोशल मीडिया पर वे छा गए. देश के बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल ने उनका इंटरव्यू प्रसारित किया.इतनी बड़ी हस्ती को आज भी गांव वाले राम चंद्रा बुलाते हैं. जलपाईगुड़ी के एंबुलेंस दादा के बारे में आप अच्छी तरह जानते हैं. लेकिन राम चंद्र की हालत ऐसी है कि आज भी उन्हें दूसरों के खेतों में काम कर अपना गुजारा करना पड़ता है.
एक दिन खबर समय के सवांददाता ने उन्हें ढूंढते हुए उनके घर पहुंचे. तो वे दिल्ली से मिले तांब पत्र दिखाने लगे. 94 साल की उम्र हो गई है, लेकिन आज भी नाचते हैं. कह रहे थे कि मुंबई से कल्पना का फोन आया है. गाने के लिए बुला रही है. यहां गांव में उनकी कला को कोई सम्मान नहीं देता. गांव वालों के लिए मैं एक नचनिया और बजनिया हूं. गरीब हूं और अनुसूचित जाति से हूं,इसलिए गांव के बड़े-बड़े लोग अपने खेतों में काम कराने के लिए ले जाते हैं. कह रहे थे कि मुंबई चला जाऊंगा. अब गांव में कुछ रह नहीं गया है. रामचंद्र माझी ने सुरैया के साथ नृत्य किया है. कल्पना पटवारी के साथ कई गाने गाए हैं.
भिखारी ठाकुर की लोक कला को आगे बढ़ा रहे रामचंद्र माझी ने बताया कि जब दिल्ली में थे तो आज तक ने उनका इंटरव्यू लिया था. उसके बाद से यह सिलसिला शुरु हो गया. रामचंद्र माझी ने भिखारी ठाकुर कृत कई नाटकों में काम किया. 12 साल की उम्र से ही भिखारी ठाकुर के साथ रहे. अपनी कला के प्रदर्शन के सिलसिले में वे कई देशों की यात्रा कर चुके हैं. मारीशस, नेपाल ,पाकिस्तान आदि देशों में उनके कई कार्यक्रम हो चुके हैं. भोजपुरी गायकों में कल्पना उन्हें पसंद है.
वे कहते हैं कि आज के भोजपुरी कलाकार सिर्फ पैसे कमाने के लिए गाते हैं. कला से उन्हें कोई लेना देना नहीं है. खेसारी लाल यादव पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं, खेसारी लाल ने पैसे के लिए कला का गलत इस्तेमाल किया है. बड़े मुकाम पर पहुंचने के बाद भी उन्हें जरा भी घमंड नहीं है. गांव वालों की बेतुकी बातें उन्हें दुखी तो करती है, लेकिन वह हंसकर रह जाते हैं. कभी कभी दुखी होकर कहते हैं, कला का सम्मान तो कलाकार ही कर सकता है. गांव वालों के पास इतनी अकल कहां. उनके लिए तो मैं आज भी चनारा हूं… खेतों में काम करने वाला चनारा… अभी इंटरव्यू खत्म भी नहीं किया था कि गांव का एक व्यक्ति आकर बोला, “बिहान खेत बोवाई देरी मत करिह आजईह” अर्थात कल खेत बुआ जाएगा. काम करने के लिए जल्दी आ जाना… कला की इतनी बड़ी तौहीन देखकर मैं अचंभित रह गया. घर लौटते हुए मैं यही सोच रहा था, कमल तो कीचड़ में ही पैदा होता है. कीचड़ क्या जाने कमल का मोल!